पहले ये समझें कि हम क्या हैं
दुनिया में ऐसे खो जाना कि फिर खुद की भी सुध नहीं रहे, ऐसा अधिकतर लोगों के साथ होता है। हम दुनिया की भागमभाग में खुद के लिए समय निकालना भूल जाते हैं। कई बार अकेले में बैठकर विचार भी करें कि हम क्या थे और अब क्या हो गए हैं। जब तक खुद को नहीं पहचानेंगे तब तक अपनी मंजिल पर नहीं पहुंच पाएंगे। फिर खोज अगर अध्यात्मिक जीवन की हो तो यह और ज्यादा जरूरी हो जाता है। मनुष्य के मन की आदत हो जाती है कि वह उठापटक करता रहे, दौड़भाग में लगा रहे और आपाधापी में उलझ जाए। मन की सारी रुची भागने में है। इसीलिए जब हम मन के कहने पर चलते हैं तो संसार की वस्तुओं के पीछे भागते हैं। कुछ समय बाद जब संसार से ऊब जाते हैं तो भगवान की ओर भागने लगते हैं। मन के भागने की वृत्ति बनी ही रहती है। मन का काम दौड़ाना है और वह दौड़ाता रहता है भले ही दिशा बदल जाए, जबकि अध्यात्म कहता है रुक जाओ। जब तक थोड़ा ठहरेंगे नहीं ईश्वर से मुलाकात नहीं होगी। सुग्रीव ने श्रीराम से वादा किया था कि बाली का वध हो जाने के बाद तथा मेरे राजा बनने के बाद मैं सीताजी की खोज के लिए वानर भेजूंगा लेकिन वह यह काम भूल गया। तब हनुमानजी ने सुग्रीव को समझाया था कि आप थोड़ा भीतर उतर कर चिंतन करें। पहले आप राज्य पाने के लिए दौड़ रहे थे और अब आप उसी वृत्ति के कारण भगवान का काम नहीं करके डर रहे हैं। आपका मन कुल मिलाकर आपाधापी में है। दुनिया में यदि पाना है तो दौड़ना पड़ेगा और दुनिया बनाने वाले को यदि पाना है तो हो सकता है दौड़ते हुए उसे खो ही दें। दोनों के समीकरण अलग हैं। दौड़े तो ही संसार मिलेगा और अध्यात्म में दौड़े तो शायद ईश्वर को खो देंगे। इसलिए थोड़ा रुकना सीखें। रुकने का अर्थ है आप जैसे हैं वैसे ही परमात्मा को समर्पित हो जाएं। यह सोचना कि पहले साधु बन जाएं और फिर भगवान के पास जाएं तो हो सकता है हम भटक जाएंगे। सबसे पहले जैसे हो वैसे ही रुक जाओ। सुग्रीव को यह बात समझ में आई और वे दोबारा श्रीराम तक पहुंचे। हम जैसे हैं उसे जानने के लिए ध्यान, मेडिटेशन एक सही क्रिया है। सुग्रीव के जीवन में हनुमान की उपस्थिति का अर्थ ही मेडिटेशन था।
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