जीवन सफर है, इसकी गति सधी हुई रखें
सामान्य सी कहावत है कि जीवन एक सफर है। इस सफर में चढ़ाई भी है और ढलान भी। हम किसी भी रास्ते पर हो, सफर में गति सधी हुई हो तो ज्यादा आसानी होती है। हम जब ऊपर चढ़ रहे हों तो सारी ताकत मंजिल की ओर लगाने में खर्च होती है लेकिन ध्यान यह भी रखना पड़ता है कि कोई ताकत उतनी ही तेजी से हमें नीचे भी खींच रही है, लेकिन जब हम नीचे की ओर जा रहे होते हैं तब ऐसी कोई शक्ति नहीं होती जो हमें ऊपर की ओर उठाए। बस यहीं हमारी गति सबसे ज्यादा सधी हुई होनी चाहिए।
विज्ञान का कायदा है कि ऊपर चढ़ने में अलग ताकत लगती है और नीचे उतरने में अलग। लेकिन फोर्स दोनों ही स्थिति में होता है। जब हम ऊपर चढ़ रहे होते हैं तो ताकत इस बात के लिए लगाना पड़ती है कि हर हालत में लक्ष्य पर पहुंच जाएं, थक न जाएं। जब नीचे उतर रहे होते हैं तो ताकत तब भी लगाना पड़ती है लेकिन उस समय मामला होता है लड़खड़ा न जाएं, जल्दबाजी न हो जाए, गिर जाने के मौके उतरते समय ज्यादा रहते हैं। ऊपर जाने में थकने का और नीचे आने में गिरने का खतरा बना रहता है। इसे जीवन की यात्रा से जोड़कर देखा जाए। ऊपर चढ़ना ऐसा है जैसे संसार में ही जीना। भौतिकता की यात्रा में ऊपर जाने को ही महत्व माना जाता है। यहां जो जितना ऊपर है उसे उतना ही सफल घोषित किया जाता है। इस शीर्ष पर अपनी अलग थकान होती है।
ऊपर चढ़े हुए लोगों की थकान का दूसरा नाम अशांति भी है। इसी तरह ढलान की यात्रा अपने भीतर उतरने की आध्यात्मिक यात्रा जैसा है। इसमें जो ताकत लगती है वह साधना है। इस दौरान जब लड़खड़ाएं तो भक्ति मार्ग में पतन समझ लें। उतरते समय फिर भी एक अजीब सी सुविधा लगती है यही आनंद है। संत-फकीरों को ढलान पर संभलकर उतरने की कला आती है। उतार पर उनकी तैयारी और अधिक गहरे जाने की रहती है। ताकत दोनों में लगेगी लेकिन यह ताकत ऊपर और नीचे की यात्रा के संतुलन के लिए लगाई जाए। यात्रा दोनों प्रकार की करना है। बस विवेक रूपी ताकत से तय करते रहना है, कब कौन सी, कितनी यात्रा की जाए।
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